Monday 11 October 2010

सईद ख़ा ’सईद’

















हज़रात, पेश-ए-ख़िदमत है
जनाब ’सईद अहमद सईद’
की एक ग़ज़ल
 मुलाहिज़ा फ़रमाएं-

मैं चाहता हूं मगर बाख़ुदा नहीं होती
किसी की याद है दिल से जुदा नहीं होती

न लाओ लफ़्ज़े-तआस्सुब को कभी दिल के क़रीब
मरज़ ये ऐसा है जिसकी दवा नहीं होती
 
वही हूं मैं वही तू है, वही हैं हाथ मेरे
कबूल क्यों मेरी या रब दुआ नहीं होती

ज़मीर वाले तवक्कल ख़ुदा पे रखते हैं
ख़ुदी न बेच, ये दौलत ख़ुदा नहीं होती

सईद अपनी दुआओं में इल्तजा रखना
दरे-हबीब पे ख़ाली सदा नहीं होती

11 comments:

  1. ज़मीर वाले तवक्कल ख़ुदा पे रखते हैं
    ख़ुदी न बेच, ये दौलत ख़ुदा नहीं होती
    बहुत ख़ूबसूरत शेर !

    ReplyDelete
  2. न लाओ लफ़्ज़े-तआस्सुब को कभी दिल के क़रीब
    मरज़ ये ऐसा है जिसकी दवा नहीं होती

    खूब कहा भाई ,उम्दा ग़ज़ल ,
    बहुत बधाई !

    ReplyDelete
  3. ज़मीर वाले तवक्कल ख़ुदा पे रखते हैं
    ख़ुदी न बेच, ये दौलत ख़ुदा नहीं होती

    वाह ! बहुत खुबसूरत .....आभार

    ReplyDelete
  4. सईद साहब, कमाल की शायरी है आपकी, अब तक नज़र नहीं आई थी, अब आई है तो हर शेर दाद मॉंग रहा है।
    तहे दिल से मुबारकबाद, इस मुकम्‍मल बयां के लिये।

    ReplyDelete
  5. 'न लाओ लफ़्ज़े-तआस्सुब को कभी दिल के क़रीब
    मरज़ ये ऐसा है जिसकी दवा नहीं होती'
    वाह! क्या खूब लिखा है!
    गज़ब की ग़ज़ल है ..सईद साहब को बधाई और आभार इस प्रस्तुति के लिए.

    ReplyDelete
  6. 'न लाओ लफ़्ज़े-तआस्सुब को कभी दिल के क़रीब
    मरज़ ये ऐसा है जिसकी दवा नहीं होती'
    वाह! क्या खूब लिखा है!

    ReplyDelete
  7. वही हूं मैं वही तू है, वही हैं हाथ मेरे
    कबूल क्यों मेरी या रब दुआ नहीं होती
    Kya khoob kaha hai. wah wah!!

    Shahid sahab ki is koshish ke liye unhe badhayi!

    ReplyDelete
  8. shahid ji kuchh aur bhi daaliye isi tarah .intjaar hai .

    ReplyDelete
  9. मेरी फितरत, मेरे अफकार अलग हैं 'शाहिद'... दिल मसाइल में उलझता है, ये ज़ुल्फों में नहीं!!!
    jaate jaate yoon hi najar pad gayi idhar aur shabdo ko jab dekha to thahar gayi aur kai baar dohrakar man ko khush kiya ,waah kya baat ,mano mujh jaiso ke liye hi likh diya hai ,dam hai .

    ReplyDelete