Monday 11 October 2010

सईद ख़ा ’सईद’

















हज़रात, पेश-ए-ख़िदमत है
जनाब ’सईद अहमद सईद’
की एक ग़ज़ल
 मुलाहिज़ा फ़रमाएं-

मैं चाहता हूं मगर बाख़ुदा नहीं होती
किसी की याद है दिल से जुदा नहीं होती

न लाओ लफ़्ज़े-तआस्सुब को कभी दिल के क़रीब
मरज़ ये ऐसा है जिसकी दवा नहीं होती
 
वही हूं मैं वही तू है, वही हैं हाथ मेरे
कबूल क्यों मेरी या रब दुआ नहीं होती

ज़मीर वाले तवक्कल ख़ुदा पे रखते हैं
ख़ुदी न बेच, ये दौलत ख़ुदा नहीं होती

सईद अपनी दुआओं में इल्तजा रखना
दरे-हबीब पे ख़ाली सदा नहीं होती