Thursday 20 September 2012

MUZAFFAR RAZMI

  (खि़राजे-अक़ीदत)                                 जनाब मुज़फ़्फ़र रज़मी
‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/
लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’

रज़मी साहब की शख़्सियत उनके कलाम के नज़रिये से देखें, तो शोहरत की बुलंदी को छू लेने वाले इस अज़ीम शायर की सादगी उसमें चार चांद लगाती रही है. आज के अखबारों से ही उनके इंतकाल की ख़बर मिली. क़रीब डेढ़ साल पहले मैंने उनके वतन कैराना जाकर दैनिक जनवाणी के लिए उनका इंटरव्यू लिया था. वे बहुत ही खुलूस और सादगी से मिले. खिराजे-अक़ीदत के रूप में पेश है उस इंटरव्यू के अंश-
शेरो-सुखन की शाखों पर खिलने वाले गुल हर खास-ओ-आम की पसंद बन जाते हैं। ‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ शेर की शक्ल में ऐसा ही एक गुल खिला, और उसकी खुशबू संसद के गलियारों तक महकने लगी। न जाने कितनी बार यह शेर संसद में गूंज चुका है। इस शेर के खालिक जनाब मुजफ्फर रजमी साहब का ताल्लुक मुजफ्फरनगर के कस्बा कैराना से है। 75 साल की उम्र का सफर तय कर चुके उर्दू अदब के मुमताज औ मकबूल शायर रजमी साहब से विभिन्न पहलुओं पर लंबी गुफ्तगू  हुई।

सवाल- रजमी साहब, सबसे पहले यही जानना चाहेंगे कि अदबी दुनिया से लेकर सियासी गलियारों तक शोहरत की बुलंदी पाने वाले ‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ शेर का ख्याल कैसे आया?
जवाब- पशे-मंजर कुछ भी नहीं था। कैराना की अदबी तंजीम ने 1992 में तरही मिसरा दिया। जिसमें कही गई गजल में यह शेर भी हुआ। तरही मुशायरे के अलावा कई महफिलों में सुनाया गया, और खूब पसंद किया गया। 1974 में आल इंडिया रेडियो से ब्राडकास्ट हुआ, तो मुल्क भर में आम फेम शेर बन गया।
सवाल- शेर के सियासी सफर की शुरूआत पर कुछ रोशनी डालना चाहेंगे?
जवाब- आल इंडिया रेडियो से बाडकास्ट होने के बाद सबसे पहले इस शेर को अपनी तकरीर में जम्मू-कशमीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पढ़ा। इसके बाद तो शेर मकबूलियत की बुलंदी पर पहुंचता रहा। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शवयात्रा के दौरान टीवी कमेंट्रेटर कमलेश्वर ने यह शेर बार बार दोहराया। इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद इस शेर को अपने संबोधन में प्रयोग किया। मौजूदा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इस शेर को अपने संबोधन में पढ़ा है। यह शेर लोकसभा की कार्यवाही में दर्ज है। जिसे कई संसद सदस्यों ने अनेक अवसरों पर प्रयोग किया है।
सवाल- शेर की मकबूलियत के दौर का कोई किस्सा याद है?
जवाब- सियासी गलियारों तक पहुंचने के बाद इस शेर को अपने अपने तरीके से पेश करते हुए कुछ कथित शायरों ने इसे अपना बताने का सिलसिला छेड़ दिया। औ कई किताबों में इस तरह पेश भी किया। हालांकि मीडिया से जुड़े खैरख्वाह और जाति कोशिश के चलते शेर की हिफाजत की जा सकी। खुशी और तसल्ली इस बात की है कि जहां लोग शेर को जानते हैं, वहीं शेर के खालिक के रूप में मुजफ्फर रजमी का नाम भी जानते हैं।
सवाल- आज की शायरी को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- पुराने दौर की शायरी पर नजर डाली जाए, तो वह कोठे या दरबार तक सिमटी हुई दिखाई देती है। कौम के मसायल नजर नहीं आते। जबकि मौजूदा दौर की शायरी हर रंग से सजी हुई है।
सवाल- जदीद शायरी पर आपके कुछ ख्यालात ?
जवाब- शायरी सिर्फ शायरी है, जिसके मजमिन वक्त के साथ बदलते रहते हैं। शायरी की जबान में अपनी बात को सलीके से कहना उसको मकबूल बना देती है।
सवाल- मुशायरों के बदलते स्वरूप को किस नजर से देखते हैं आप?
जवाब- आज के वक्त में मुशायरों के स्टेज पर शायराना अजमत घट रही है, नुमाइशा बढ़ रही है। जिससे उर्दू अदब और तहजीब दोनों को नुकसान हो रहा है।
सवाल- आप शायरी का सही स्वरूप क्या मानते हैं?
जवाब- तरही मुशायरों की महफिलों में मश्क (अभ्यास) बेहतर होता है। माहौल, मिजाज, सोच और फिक्र के लिए नशिस्तों का दौर जरूरी है।
सवाल- सामाजिक माहौल को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- कुछ सियासी लोग अपने मफाद के लिए ऐसे हालात बनाते हैं। लेकिन अवाम इन सब बातों को बखूबी समझ लेता है।
सवाल- अदब के लिए कुछ नया क्या हो रहा है?
- ‘लम्हों की खता' का नया एडीशन उर्दू जबान में छपकर आ गया है। इसके हिन्दी एडीशन के प्रकाशन का काम अंतिम चरण में है। इसी के साथ ‘सदियों की सजा’ के नाम से शायरी की नई किताब भी जल्द ही अवाम तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।
सवाल- कुछ खास लिखने की तमन्ना है?
जवाब- देश के लिए एक यादगार तराना लिखने की ख्वाहिश है। जिसमें कुछ कहा भी जा चुका है। इसे देश के प्रधानमंत्री को सौंपना चाहता हूं।
सवाल- जिंदगी को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- कोई शिकवा-शिकवा शिकायत नहीं है। बस यही कहना है-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा।
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जनाब मुजफ्फर रजमी के कुछ पसंदीदा अशआर

सलीके से सजाना आईनों को वरना ए रजमी
गलत रुख हो तो फिर चेहरों का अंदाजा नहीं होता
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करीब आएं तो शायद समझ में आ जाएं
कि फासले तो गलतफहमियां बढ़ाते हैं।
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मांगने वाला तो गूंगा था मगर
देने वाले तू भी बहरा हो गया।
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बिछड़ के अपने कबीले से ये हुआ अंजाम
भटकता फिरता हूं हर सम्त अजनबी की तरह।
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जब भी ऐ दोस्त तेरी सम्त बढ़ाता हूं कदम
फासले भी मेरे हमराह चले आते हैं।
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उम्र भर बुख्ल का अहसास रुलाएगा तुम्हें
मैं तो साइल हूं, दुआ देके चला जाऊंगा
(बुख्ल-कंजूसी, साइल-फकीर-सवाली)
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शाहिद मिर्जा शाहिद

Tuesday 30 August 2011

संचालन की अतिश्योक्ति में दब गई शायरी की सच्चाई : अनवर जलालपुरी

मुशायरों की महफिल में हजारों की तादाद में जमा सामाईन की भीड़ के मिजाज को चार दशक से बखूबी समझने वाले अनवर जलालपुरी की निजामत किसी भी मुशायरे की कामयाबी की जमानत बन जाती है। मदरसा एजुकेशन बोर्ड उत्तर प्रदेश के चेयरमैन की जिम्मेदारी के साथ प्रदेश सरकार की ओर से उन्हें मंत्री का दर्जा हासिल है। इसके अलावा वे उर्दू अरबी फारसी यूनिवर्सिटी व उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी के सदस्य भी हैं। अकबर द ग्रेट टीवी सीरियल के लिए गीत व संवाद लेखन कर चुके अनवर जलालपुरी की नौ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें खारे पानी का सिलसिला, खूशबू की रिश्तेदारी, जागती आंखें, जमाले-मुहम्मद, जर्बे-लाइलाह, बादस्त खुदा, हरर्फे-अबजद, रोशनी के सफीर, अपनी धरती अपने लोग शामिल हैं। शायरी की एक किताब अभी प्रेस में है। कुरआन पाक के तीसवें पारे का उर्दू शायरी में तर्जुमा और श्रीमद भागवत गीता के 700 में से अब तक 350 श्लोक को शायरी में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा असलम इलाहाबादी ने उनके व्यक्तित्व पर एक किताब भी लिखी है। उत्तर प्रदेश राज्य उर्दू एकेडमी समेत विभिन्न स्तर पर अवार्ड हासिल कर चुके अनवर जलालपुरी अब तक अमेरिका, कनाडा, पाकिस्तान, इंग्लैंड, दुबई, शारजाह, बहरीन, दोहा, कतर, समेत विभिन्न देशों में होने वाले मुशायरों में शिरकत करते हुए देश ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी निजामत के फन का लोहा मनवा चुके हैं।  
पेश है अनवर जलालपुरी से शाहिद मिर्जा की बातचीत-

सवाल- नज्म और नस्र (गद्य और पद्य) में अब तक नौ किताबें लिखने के बावजूद ‘अनवर जलालपुरी’ एक नाजिमे-मुशायरा के रूप में ही अधिक जाने जाते हैं?
 जवाब-  हां, ये सच है कि दस किताबों का लेखक, अकबर द ग्रेट जैसे हिट टीवी सीरियल का गीतकार और संवाद लेखक होने के बावजूद शोहरत निजामत की फनकारी तक सिमटकर रह गई है। जिसका ज्यादातर हिस्सा अतिश्योक्ति से भरा होता है। हर मुशायरे के बाद यह महसूस होता है कि निजामत के अतिश्योक्ति भरे फन, या कहें झूठ के नीचे मेरी शायरी की सच्चाई दबकर रह गई है। लेकिन यही जिन्दगी की हकीकत है, कि हर शख्स की पहचान उसके सृजन और योग्यता के किसी एक सूबे में सिमट जाती है।

सवाल- मुशायरों और किताबों की शायरी में काफी फर्क महसूस किया जाता है, इसका मुख्य कारण क्या मानते हैं?
  जवाब-  इसे खास-ओ-आम की शायरी का फर्क कह सकते हैं। देखा जाए तो मिर्जा गालिब की शायरी में यह दोनों रंग साफ नजर आते हैं। हर जमाने में पढ़े-लिखे और गैर पढ़े लिखे लोगों की जेहनी सतह होती है। इसी के लिहाज से जबान इस्तेमाल होती है। मुशायरों में हर वर्ग सामाईन मौजूद होते हैं। जहां शायरी के साथ साथ तरन्नुम के साथ की जाने वाली अदायगी भी शायर को शोहरत और कामयाबी दिलाती है।

सवाल- इससे ऐसा नहीं लगता कि शायरी का कुछ नुकसान हुआ है?
 जवाब-  अगर बीते तीन दशक में आए परिवर्तन पर नजर डाली जाए, तो फर्क महसूस होता है। इसमें शायरों की खता कम, सुनने वालों की कमजोरी ज्यादा है। पहले उर्दू जानने वालों की तादाद ज्यादा थी, जिनके बीच बेहतर उर्दू का इस्तेमाल करने के मौके हासिल थे। लेकिन आज जो पीढ़ी नजर आती है, वो कान्वेंट स्कूलों से शिक्षा हासिल करके आ रही है। मैं खुद अपनी बात करूं, तो 42 साल अंग्रेजी का प्रवक्ता रहा, स्टाफ रूम में साथियों के बीच हिन्दी में गुफ्तगू करता रहा। मुशायरों में मैयारी उर्दू और इन सबके बीच एक घरेलू जबान का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा हर शख्स के साथ होता है। जाहिर है, मुशायरों में आने वाले हर वर्ग के बीच आम जबान की शायरी का इस्तेमाल आज की जरूरत बन गया है।

सवाल- इस तब्दीली को किस रूप में देखते हैं?
जवाब-  जमाने के साथ चलना जरूरी होता है। बात चाहे शायरी की हो, या जबान की, जमाने के तकाजे को पूरा किया ही जाना चाहिए।

अनवर जलालपुरी की एक गजल-

आदमी दुनिया में अच्छा या बुरा कोई नहीं
सबकी अपनी मसलहत है बेवफा कोई नहीं

हर तरफ ना अहल लोगों की सजी है अंजुमन
काफिलों की भीड़ है और रहनुमा कोई नहीं

कौन सी बस्ती में या रब तूने पैदा कर दिया
दुश्मनी पर सब हैं आमादा, खफा कोई नहीं

तीरगी में कारनामे जिनके रोशन हैं बहुत
रोशनी में उनसे बढ़कर पारसा कोई नहीं

अपना गम कहने से पहले सोच ले ‘अनवर’ जरा
संग दिल माहौल में दर्द आशना कोई नहीं
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शाहिद मिर्जा शाहिद

Monday 11 October 2010

सईद ख़ा ’सईद’

















हज़रात, पेश-ए-ख़िदमत है
जनाब ’सईद अहमद सईद’
की एक ग़ज़ल
 मुलाहिज़ा फ़रमाएं-

मैं चाहता हूं मगर बाख़ुदा नहीं होती
किसी की याद है दिल से जुदा नहीं होती

न लाओ लफ़्ज़े-तआस्सुब को कभी दिल के क़रीब
मरज़ ये ऐसा है जिसकी दवा नहीं होती
 
वही हूं मैं वही तू है, वही हैं हाथ मेरे
कबूल क्यों मेरी या रब दुआ नहीं होती

ज़मीर वाले तवक्कल ख़ुदा पे रखते हैं
ख़ुदी न बेच, ये दौलत ख़ुदा नहीं होती

सईद अपनी दुआओं में इल्तजा रखना
दरे-हबीब पे ख़ाली सदा नहीं होती

Sunday 19 September 2010

अ. सलाम फ़रीदी

हज़रात, आदाब
हाज़िर है 
जनाब अ. सलाम फ़रीदी की गज़ल

वो अक़्ल वो शऊर न दे, ऐ ख़ुदा मुझे
ख़ुद से हक़ीर लगने लगे दूसरा मुझे

फिर मेरी चश्मे-शौक़ की ताक़त को आज़मा
ऐ बरक़े-तूर फिर वही जलवा दिखा मुझे

इंसान जिसमें देख ले खुद अपनी असलियत
मिलता नहीं है ऐसा कोई आईना मुझे


मेरी शिकस्त का यही नासेह बना सबब
दुश्मन से मिलके दोस्त ने दी है दग़ा मुझे

मैं ज़िन्दगी के कर्ब से घबराया जब कभी
 यादों ने तेरी बढ़के सहारा दिया मुझे

ममनून यूं फ़रीदी मैं अपनी अना का हूं
हर वक़्त देती रहती है दर्शे-ग़िना मुझे

Monday 16 August 2010

याक़ूब मोहसिन

साहेबान आदाब
पेश है शम-ए-अदब
इसमें आसपास मौजूद साथी शायरों का कलाम पेश किया जायेगा.
शुरूआत











जनाब  या़क़ूब मोहसिन
की  इस ग़ज़ल से
मुलाहिज़ा फ़रमाएं

हम कैसे बहादुर हैं दुनिया को दिखाना है
दुश्मन जो वतन के हैं उन सबको मिटाना है

वो लाख करे कोशिश इक इंच नहीं देंगे
सरहद से बहुत आगे दुश्मन को भगाना है

जो तोप के गोलों से बिल्कुल भी नहीं सहमे
उन वीरों की हिम्मत का कायल ये ज़माना है

इतरा के न चल इतना मग़रूर न बन इतना
दो ग़ज़ की ज़मीं है वो जो तेरा ठिकाना है

तुम मिलके बिछड़ने का अहसास न कर लेना
हमको तो शहादत का ये शौक पुराना है

हिम्मत से हर इक मुश्किल आसान हुई मोहसिन
दुश्मन को मिटाने का बस अज़्म बनाना है

शायर: याक़ूब मोहसिन