(खि़राजे-अक़ीदत) जनाब मुज़फ़्फ़र रज़मी
‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/
लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’
रज़मी साहब की शख़्सियत उनके कलाम के नज़रिये से देखें, तो शोहरत की बुलंदी को छू लेने वाले इस अज़ीम शायर की सादगी उसमें चार चांद लगाती रही है. आज के अखबारों से ही उनके इंतकाल की ख़बर मिली. क़रीब डेढ़ साल पहले मैंने उनके वतन कैराना जाकर दैनिक जनवाणी के लिए उनका इंटरव्यू लिया था. वे बहुत ही खुलूस और सादगी से मिले. खिराजे-अक़ीदत के रूप में पेश है उस इंटरव्यू के अंश-
शेरो-सुखन की शाखों पर खिलने वाले गुल हर खास-ओ-आम की पसंद बन जाते हैं। ‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ शेर की शक्ल में ऐसा ही एक गुल खिला, और उसकी खुशबू संसद के गलियारों तक महकने लगी। न जाने कितनी बार यह शेर संसद में गूंज चुका है। इस शेर के खालिक जनाब मुजफ्फर रजमी साहब का ताल्लुक मुजफ्फरनगर के कस्बा कैराना से है। 75 साल की उम्र का सफर तय कर चुके उर्दू अदब के मुमताज औ मकबूल शायर रजमी साहब से विभिन्न पहलुओं पर लंबी गुफ्तगू हुई।
सवाल- रजमी साहब, सबसे पहले यही जानना चाहेंगे कि अदबी दुनिया से लेकर सियासी गलियारों तक शोहरत की बुलंदी पाने वाले ‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ शेर का ख्याल कैसे आया?
जवाब- पशे-मंजर कुछ भी नहीं था। कैराना की अदबी तंजीम ने 1992 में तरही मिसरा दिया। जिसमें कही गई गजल में यह शेर भी हुआ। तरही मुशायरे के अलावा कई महफिलों में सुनाया गया, और खूब पसंद किया गया। 1974 में आल इंडिया रेडियो से ब्राडकास्ट हुआ, तो मुल्क भर में आम फेम शेर बन गया।
सवाल- शेर के सियासी सफर की शुरूआत पर कुछ रोशनी डालना चाहेंगे?
जवाब- आल इंडिया रेडियो से बाडकास्ट होने के बाद सबसे पहले इस शेर को अपनी तकरीर में जम्मू-कशमीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पढ़ा। इसके बाद तो शेर मकबूलियत की बुलंदी पर पहुंचता रहा। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शवयात्रा के दौरान टीवी कमेंट्रेटर कमलेश्वर ने यह शेर बार बार दोहराया। इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद इस शेर को अपने संबोधन में प्रयोग किया। मौजूदा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इस शेर को अपने संबोधन में पढ़ा है। यह शेर लोकसभा की कार्यवाही में दर्ज है। जिसे कई संसद सदस्यों ने अनेक अवसरों पर प्रयोग किया है।
सवाल- शेर की मकबूलियत के दौर का कोई किस्सा याद है?
जवाब- सियासी गलियारों तक पहुंचने के बाद इस शेर को अपने अपने तरीके से पेश करते हुए कुछ कथित शायरों ने इसे अपना बताने का सिलसिला छेड़ दिया। औ कई किताबों में इस तरह पेश भी किया। हालांकि मीडिया से जुड़े खैरख्वाह और जाति कोशिश के चलते शेर की हिफाजत की जा सकी। खुशी और तसल्ली इस बात की है कि जहां लोग शेर को जानते हैं, वहीं शेर के खालिक के रूप में मुजफ्फर रजमी का नाम भी जानते हैं।
सवाल- आज की शायरी को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- पुराने दौर की शायरी पर नजर डाली जाए, तो वह कोठे या दरबार तक सिमटी हुई दिखाई देती है। कौम के मसायल नजर नहीं आते। जबकि मौजूदा दौर की शायरी हर रंग से सजी हुई है।
सवाल- जदीद शायरी पर आपके कुछ ख्यालात ?
जवाब- शायरी सिर्फ शायरी है, जिसके मजमिन वक्त के साथ बदलते रहते हैं। शायरी की जबान में अपनी बात को सलीके से कहना उसको मकबूल बना देती है।
सवाल- मुशायरों के बदलते स्वरूप को किस नजर से देखते हैं आप?
जवाब- आज के वक्त में मुशायरों के स्टेज पर शायराना अजमत घट रही है, नुमाइशा बढ़ रही है। जिससे उर्दू अदब और तहजीब दोनों को नुकसान हो रहा है।
सवाल- आप शायरी का सही स्वरूप क्या मानते हैं?
जवाब- तरही मुशायरों की महफिलों में मश्क (अभ्यास) बेहतर होता है। माहौल, मिजाज, सोच और फिक्र के लिए नशिस्तों का दौर जरूरी है।
सवाल- सामाजिक माहौल को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- कुछ सियासी लोग अपने मफाद के लिए ऐसे हालात बनाते हैं। लेकिन अवाम इन सब बातों को बखूबी समझ लेता है।
सवाल- अदब के लिए कुछ नया क्या हो रहा है?
- ‘लम्हों की खता' का नया एडीशन उर्दू जबान में छपकर आ गया है। इसके हिन्दी एडीशन के प्रकाशन का काम अंतिम चरण में है। इसी के साथ ‘सदियों की सजा’ के नाम से शायरी की नई किताब भी जल्द ही अवाम तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।
सवाल- कुछ खास लिखने की तमन्ना है?
जवाब- देश के लिए एक यादगार तराना लिखने की ख्वाहिश है। जिसमें कुछ कहा भी जा चुका है। इसे देश के प्रधानमंत्री को सौंपना चाहता हूं।
सवाल- जिंदगी को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- कोई शिकवा-शिकवा शिकायत नहीं है। बस यही कहना है-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा।
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जनाब मुजफ्फर रजमी के कुछ पसंदीदा अशआर
सलीके से सजाना आईनों को वरना ए रजमी
गलत रुख हो तो फिर चेहरों का अंदाजा नहीं होता
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करीब आएं तो शायद समझ में आ जाएं
कि फासले तो गलतफहमियां बढ़ाते हैं।
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मांगने वाला तो गूंगा था मगर
देने वाले तू भी बहरा हो गया।
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बिछड़ के अपने कबीले से ये हुआ अंजाम
भटकता फिरता हूं हर सम्त अजनबी की तरह।
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जब भी ऐ दोस्त तेरी सम्त बढ़ाता हूं कदम
फासले भी मेरे हमराह चले आते हैं।
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उम्र भर बुख्ल का अहसास रुलाएगा तुम्हें
मैं तो साइल हूं, दुआ देके चला जाऊंगा
(बुख्ल-कंजूसी, साइल-फकीर-सवाली)
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शाहिद मिर्जा शाहिद
‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/
लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’
रज़मी साहब की शख़्सियत उनके कलाम के नज़रिये से देखें, तो शोहरत की बुलंदी को छू लेने वाले इस अज़ीम शायर की सादगी उसमें चार चांद लगाती रही है. आज के अखबारों से ही उनके इंतकाल की ख़बर मिली. क़रीब डेढ़ साल पहले मैंने उनके वतन कैराना जाकर दैनिक जनवाणी के लिए उनका इंटरव्यू लिया था. वे बहुत ही खुलूस और सादगी से मिले. खिराजे-अक़ीदत के रूप में पेश है उस इंटरव्यू के अंश-
शेरो-सुखन की शाखों पर खिलने वाले गुल हर खास-ओ-आम की पसंद बन जाते हैं। ‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ शेर की शक्ल में ऐसा ही एक गुल खिला, और उसकी खुशबू संसद के गलियारों तक महकने लगी। न जाने कितनी बार यह शेर संसद में गूंज चुका है। इस शेर के खालिक जनाब मुजफ्फर रजमी साहब का ताल्लुक मुजफ्फरनगर के कस्बा कैराना से है। 75 साल की उम्र का सफर तय कर चुके उर्दू अदब के मुमताज औ मकबूल शायर रजमी साहब से विभिन्न पहलुओं पर लंबी गुफ्तगू हुई।
सवाल- रजमी साहब, सबसे पहले यही जानना चाहेंगे कि अदबी दुनिया से लेकर सियासी गलियारों तक शोहरत की बुलंदी पाने वाले ‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने/लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ शेर का ख्याल कैसे आया?
जवाब- पशे-मंजर कुछ भी नहीं था। कैराना की अदबी तंजीम ने 1992 में तरही मिसरा दिया। जिसमें कही गई गजल में यह शेर भी हुआ। तरही मुशायरे के अलावा कई महफिलों में सुनाया गया, और खूब पसंद किया गया। 1974 में आल इंडिया रेडियो से ब्राडकास्ट हुआ, तो मुल्क भर में आम फेम शेर बन गया।
सवाल- शेर के सियासी सफर की शुरूआत पर कुछ रोशनी डालना चाहेंगे?
जवाब- आल इंडिया रेडियो से बाडकास्ट होने के बाद सबसे पहले इस शेर को अपनी तकरीर में जम्मू-कशमीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पढ़ा। इसके बाद तो शेर मकबूलियत की बुलंदी पर पहुंचता रहा। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शवयात्रा के दौरान टीवी कमेंट्रेटर कमलेश्वर ने यह शेर बार बार दोहराया। इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद इस शेर को अपने संबोधन में प्रयोग किया। मौजूदा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इस शेर को अपने संबोधन में पढ़ा है। यह शेर लोकसभा की कार्यवाही में दर्ज है। जिसे कई संसद सदस्यों ने अनेक अवसरों पर प्रयोग किया है।
सवाल- शेर की मकबूलियत के दौर का कोई किस्सा याद है?
जवाब- सियासी गलियारों तक पहुंचने के बाद इस शेर को अपने अपने तरीके से पेश करते हुए कुछ कथित शायरों ने इसे अपना बताने का सिलसिला छेड़ दिया। औ कई किताबों में इस तरह पेश भी किया। हालांकि मीडिया से जुड़े खैरख्वाह और जाति कोशिश के चलते शेर की हिफाजत की जा सकी। खुशी और तसल्ली इस बात की है कि जहां लोग शेर को जानते हैं, वहीं शेर के खालिक के रूप में मुजफ्फर रजमी का नाम भी जानते हैं।
सवाल- आज की शायरी को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- पुराने दौर की शायरी पर नजर डाली जाए, तो वह कोठे या दरबार तक सिमटी हुई दिखाई देती है। कौम के मसायल नजर नहीं आते। जबकि मौजूदा दौर की शायरी हर रंग से सजी हुई है।
सवाल- जदीद शायरी पर आपके कुछ ख्यालात ?
जवाब- शायरी सिर्फ शायरी है, जिसके मजमिन वक्त के साथ बदलते रहते हैं। शायरी की जबान में अपनी बात को सलीके से कहना उसको मकबूल बना देती है।
सवाल- मुशायरों के बदलते स्वरूप को किस नजर से देखते हैं आप?
जवाब- आज के वक्त में मुशायरों के स्टेज पर शायराना अजमत घट रही है, नुमाइशा बढ़ रही है। जिससे उर्दू अदब और तहजीब दोनों को नुकसान हो रहा है।
सवाल- आप शायरी का सही स्वरूप क्या मानते हैं?
जवाब- तरही मुशायरों की महफिलों में मश्क (अभ्यास) बेहतर होता है। माहौल, मिजाज, सोच और फिक्र के लिए नशिस्तों का दौर जरूरी है।
सवाल- सामाजिक माहौल को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- कुछ सियासी लोग अपने मफाद के लिए ऐसे हालात बनाते हैं। लेकिन अवाम इन सब बातों को बखूबी समझ लेता है।
सवाल- अदब के लिए कुछ नया क्या हो रहा है?
- ‘लम्हों की खता' का नया एडीशन उर्दू जबान में छपकर आ गया है। इसके हिन्दी एडीशन के प्रकाशन का काम अंतिम चरण में है। इसी के साथ ‘सदियों की सजा’ के नाम से शायरी की नई किताब भी जल्द ही अवाम तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।
सवाल- कुछ खास लिखने की तमन्ना है?
जवाब- देश के लिए एक यादगार तराना लिखने की ख्वाहिश है। जिसमें कुछ कहा भी जा चुका है। इसे देश के प्रधानमंत्री को सौंपना चाहता हूं।
सवाल- जिंदगी को किस रूप में देखते हैं?
जवाब- कोई शिकवा-शिकवा शिकायत नहीं है। बस यही कहना है-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा।
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जनाब मुजफ्फर रजमी के कुछ पसंदीदा अशआर
सलीके से सजाना आईनों को वरना ए रजमी
गलत रुख हो तो फिर चेहरों का अंदाजा नहीं होता
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करीब आएं तो शायद समझ में आ जाएं
कि फासले तो गलतफहमियां बढ़ाते हैं।
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मांगने वाला तो गूंगा था मगर
देने वाले तू भी बहरा हो गया।
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बिछड़ के अपने कबीले से ये हुआ अंजाम
भटकता फिरता हूं हर सम्त अजनबी की तरह।
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जब भी ऐ दोस्त तेरी सम्त बढ़ाता हूं कदम
फासले भी मेरे हमराह चले आते हैं।
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उम्र भर बुख्ल का अहसास रुलाएगा तुम्हें
मैं तो साइल हूं, दुआ देके चला जाऊंगा
(बुख्ल-कंजूसी, साइल-फकीर-सवाली)
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शाहिद मिर्जा शाहिद